माइंस और आधुनिक संयंत्र होने के बावजूद SAIL निजी कंपनियों से पीछे क्यों?

– DIGITAL BHILAI NEWS –
– 17 – SEPTEMBER – 2025 – (SAIL NEWS)
- भारत की सरकारी इस्पात कंपनी SAIL (Steel Authority of India Limited) देश के लिए गर्व का प्रतीक रही है।
- लेकिन आज स्थिति यह है कि 2024–25 में SAIL की प्रति टन बिक्री से आय (NSR) निजी कंपनियों से औसतन ₹5,000 कम रही।
कंपनी के पास माइंस, कोल ब्लॉक्स और आधुनिक संयंत्र हैं, अधिकारियों की एक बड़ी फौज है, फिर भी नतीजे इतने कमजोर क्यों हैं? - यह सवाल सिर्फ कर्मचारियों का नहीं, बल्कि देश के उद्योग और जनता का भी है।
- जानिए इसके पीछे का मुख्य कारण इस खास विश्लेषण में ?
डेटा क्या कहता है?
👉वित्त वर्ष 2024–25 में प्रति टन बिक्री से आय (NSR):
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JSW Steel – ₹56,832
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TATA Steel – ₹61,721
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JSPL – ₹61,286
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SAIL – ₹53,457
👉 यानी, SAIL औसतन ₹5,000 प्रति टन कम कमा रहा है।
इतने बड़े उत्पादन वॉल्यूम में यह अंतर कंपनी के मुनाफे को सीधा प्रभावित करता है।
संसाधन हैं, फिर भी नाकामी क्यों?
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SAIL के पास अपनी आयरन-ओर माइंस और कोल ब्लॉक्स हैं।
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जैसे निजी कंपनियां करती हैं, SAIL भी विदेशों से कोकिंग कोल आयात करता है।
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आधुनिक संयंत्र और विशाल उत्पादन क्षमता मौजूद है।
फिर भी परिणाम यह है कि कंपनी निजी प्रतिस्पर्धियों से पिछड़ रही है।
मुख्य कारण (फैक्ट्स और विश्लेषण)
1. प्रोडक्ट-मिक्स की कमजोरी
👉निजी कंपनियां लगातार वैल्यू-एडेड स्टील (auto-grade, coated, galvanised) में निवेश कर रही हैं, जिससे उन्हें अधिक प्रति-टन रियलाइज़ेशन मिलता है।
👉SAIL का सेल-मिक्स अभी भी पारंपरिक फ्लैट और लॉन्ग प्रोडक्ट्स पर ज्यादा निर्भर है, जो लो-मर्जिन सेगमेंट हैं। यही कारण है कि उसका औसत NSR कम है।
2. मार्केटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन की असफलता
👉 सूत्रों से पता चला है की ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में ग्राहक अक्सर SAIL Fe550D rods खोजते हैं, लेकिन यह आसानी से उपलब्ध नहीं होती।
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TATA, Scan Steel और Rungta Steel हर छोटे बाजार में मिल जाते हैं।
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जबकि SAIL rods, TATA rods से ₹25–30 सस्ती होने के बावजूद ग्राहकों तक नहीं पहुँचती।
डीलर्स का कहना है कि TATA representative सपोर्टिव हैं, जबकि SAIL representative जवाब देने में सुस्त रहते हैं।
👉 यानी, ग्राउंड-लेवल डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क और कस्टमर-कनेक्ट की कमी है।
3. “गाँव की ओर” कार्यक्रम का सच
SAIL ने कई सालों से “Gaon Ki Ore” अभियान चलाया है।
Annual Reports में दावा किया गया है कि सैकड़ों वर्कशॉप्स आयोजित हुए, ग्रामीणों और डीलर्स को जागरूक किया गया।
लेकिन वास्तविकता यह है कि गाँवों और कस्बों में SAIL rods आज भी आसानी से नहीं मिलती।
4. सरकारी टेंडर और “देशभक्ति” का बोझ
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सरकार संसद में लिख चुकी है कि “PSU अपने दम पर संचालित होंगे, किसी तरह की अतिरिक्त मदद नहीं दी जाएगी।”
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इसके बावजूद, सेल को अक्सर राष्ट्रीय परियोजनाओं (बड़े सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स) के लिए कम दाम पर स्टील देना पड़ता है।
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यानी, कंपनी और कर्मचारियों की मेहनत से कमाया गया पैसा नेशनल प्रोजेक्ट्स में सब्सिडी जैसी स्थिति में चला जाता है।
5. लागत, इन्वेंटरी और पुराने संयंत्र का बोझ
SAIL ने पिछले वर्षों में बड़े आधुनिकीकरण कार्यक्रम चलाए।
लेकिन इन अपग्रेड्स की लागत, डीप्रिसिएशन और भारी-भरकम ओवरहेड्स से कंपनी की नेट कमाई दब गई।
निजी कंपनियां नए, लचीले संयंत्रों से उत्पादन कर रही हैं, इसलिए उनका मार्जिन अपेक्षाकृत बेहतर है।
6. आयात और ग्लोबल प्राइसिंग का दबाव
वैश्विक स्टील कीमतों की अस्थिरता और चीनी आयात ने घरेलू बाजार पर दबाव बढ़ाया।
निजी कंपनियां हेजिंग और एक्सपोर्ट-मिक्स से कुछ राहत पा गईं, लेकिन सेल को इसकी मार ज्यादा झेलनी पड़ी।
असर — किसे नुकसान?
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कर्मचारियों पर: मुनाफा घटने से बोनस, भत्ते और सुविधाएँ प्रभावित होती हैं।
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ग्राहकों पर: ग्रामीण उपभोक्ताओं को सस्ती rods होने के बावजूद उपलब्धता की समस्या झेलनी पड़ती है।
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कंपनी की साख पर: महारत्न कंपनी होते हुए भी निजी कंपनियों से पिछड़ने से SAIL की छवि और विश्वास दोनों प्रभावित होते हैं।
👉SAIL का मामला संसाधनों की कमी का नहीं बल्कि प्रबंधन की नाकामी और रणनीतिक गलतियों का है।
अधिकारियों की बड़ी फौज और सुविधाओं के बावजूद कंपनी न तो मार्केटिंग संभाल पा रही है, न ही प्रोडक्ट-मिक्स सुधार पा रही है।
👉 अगर जल्द ही SAIL ने वैल्यू-एडेड प्रोडक्ट्स पर फोकस, रिटेल-डिस्ट्रीब्यूशन में सुधार और टेंडर-रणनीति में बदलाव नहीं किया, तो यह अंतर और गहरा होगा।
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रिपोर्ट : DIGITAL BHILAI NEWS